सोहराई और खोवर सिर्फ कला के रूप नहीं बल्कि जीने के तरीके का उत्सव हैं
Sohrai and Khovar paintings are done by the tribal communities of Jharkhand to celebrate different aspects of life. Sohrai is celebrated in the month of October-November, a day after Diwali. Khovar paintings are done during the wedding season. In 2019, Khovar and Sohrai painting were accorded a भौगोलिक संकेत (GI) टैग प्रदान किया गया।
सोहराई पेंटिंग महिलाओं द्वारा प्राकृतिक रंगों जो पौधों के अर्क और अन्य प्राकृतिक पदार्थों से प्राप्त होते हैं उनका उपयोग करके बनाई जाती हैं। चित्रों में माँ-बच्चों का बंधन एक प्रमुख विषय रहता है। इसके अलावा रोज़मर्रा के जीवन के दृश्यों के साथ-साथ धार्मिक और पौराणिक विषयों को भी चित्रित किया जाता है । सोहराई चित्रों में रंग आमतौर पर लाल, पीले और काले प्रमुखता से प्रयोग किये जाते हैं । साल के पेड़ की टहनियों को ब्रश के रूप में उपयोग किया जाता है। पेंटिंग घरों की दीवारों और फर्श के साथ-साथ बर्तनों और अन्य घरेलू सामानों पर बनाई जाती हैं। यह कला अक्सर मां से बेटी को हस्तांतरित की जाती है इसलिए हम समय के साथ कई भी फ्यूजन देखते हैं जब बेटियों की शादी दूसरे गांव में हो जाती है। सोहराई पेंटिंग मातृसत्तात्मक पहलूओं को प्रमुखता से दर्शाती हैं।
खोवर पेंटिंग शादी के दौरान बनाई जाती हैं , जो आमतौर पर जनवरी में शुरूहोकर जून में बरसात के मौसम की शुरुआत तक रहता है। "खोवर" शब्द दो शब्दों से बना है - "खो", जिसका अर्थ है गुफा, और "वर", जिसका अर्थ है विवाहित जोड़ा। दिलचस्प बात यह है कि खोवर पेंटिंग करणपुरा घाटी के पास इस्को और सतपहाड़ पर्वतमाला में पाए जाने वाले शैल चित्रों के समान हैं, जो 7000-4000 ईसा पूर्व के हैं।
आदिवासी समुदाय में शादी की प्रथा के तहत, दूल्हा पारंपरिक रूप से होने वाली दुल्हन के घर रात बिताता है। इस मौके को यादगार बनाने के लिए वह जिस कमरे में रहते हैं उसे सजाया जाता है । कलाकृतियां दुल्हन पक्ष की महिलाओं द्वारा बनाई जाती हैं । ये भित्ति चित्र खोवर परंपरा का एक महत्वपूर्ण पहलू हैं और अपने कलात्मक और सांस्कृतिक महत्व के लिए अत्यधिक मूल्यवान हैं।
सोहराई और खोवर दोनों पेंटिंग्स न केवल उनकी सुंदरता के लिए बल्कि उनके सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। ऐसा माना जाता है कि ये चित्र घर में सौभाग्य और समृद्धि लाते हैं, और इन्हें उन देवी-देवताओं के सम्मान के रूप में देखा जाता है जो फसल की रक्षा करते हैं। यह आदिवासी समुदाय के लिए अपनी सांस्कृतिक पहचान और विरासत को व्यक्त करने और अपनी परंपराओं को भावी पीढ़ियों तक पहुंचाने का एक तरीका भी हैं।
हाल के वर्षों में, सोहराई और खोवर चित्रों को काफी प्रसिद्धि प्राप्त हुई है , और यह लोक कला के रूप में तेजी से लोकप्रिय हुई हैं । चित्रों को भारत और विदेशों में प्रदर्शनियों और संग्रहालयों में प्रदर्शित किया जा रहा है। इनपर काफी कुछ लिखा भी जा रहा है । इससे झारखंड की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बारे में जागरूकता बढ़ाने और पारंपरिक कला रूपों के संरक्षण और पुनरुद्धार को बढ़ावा देने में मदद मिली है।
सोहराई और खोवर पेंटिंग लोक कला का एक अनूठा और जीवंत रूप है जो झारखंड के आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपराओं को दर्शाता है। ये चित्र न केवल सुंदर हैं, बल्कि इनका गहरा सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व भी है, और ये मानवीय भावना की रचनात्मकता का एक उदहारण हैं । इन पारंपरिक कला रूपों को बढ़ावा देकर और संरक्षित करके, हम यह सुनिश्चित करने में मदद कर सकते हैं कि आने वाली पीढ़ियों में भी यह प्रचलित रहें।
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