पिचकारी का इतिहास

होली है

Lalit Bhatt
ललित भट्ट
Madanika at Chennakeshava Temple playing Holi
होली खेलती हुई मदनिका चेन्नाकेशव मंदिर में

पिचकारियां सदियों से होली के उत्सव का एक अनिवार्य अंग रही हैं, हालांकि इनका प्रयोग कब शुरू हुआ यह ऐताहिसिक दस्तावेजों में स्पष्ट नहीं है । ऐसा माना जाता है कि त्योहारों विशेषकर होली में रंगीन पानी के छिड़काव के लिए इन्हें इज़ाद किया गया। 

पुराने जमाने में , पिचकारियों को बांस या जानवरों के सींग जैसी प्राकृतिक सामग्रियों से बनाया जाता था, और पानी का छिड़काव करने के लिए एक बल्ब को दबाकर पानी का छिड़काव किया जाता था। पानी में फूलों के रंग या हल्दी जैसी चीजों को मिलाकर उसे रंगीन बनाया जाता था । समय के साथ, पिचकारियां विकसित हुईं और विभिन्न सामग्रियों जैसे धातु, प्लास्टिक, या लकड़ी से तैयार की जाने लगी।

दिलचस्प बात यह है कि सदियों से होली के उत्सव का एक अभिन्न अंग होने के बावजूद , 1896 में नासा के इंजीनियर जे डब्ल्यू वोल्फ को पिचकारी या पानी की बंदूक का पेटेंट मिला।

सबसे लोकप्रिय कहानियों में से एक भगवान कृष्ण के बारे में है, जिनके बारे में माना जाता है कि उन्होंने होली के दौरान पिचकारी का उपयोग करने की परंपरा शुरू की थी। पौराणिक कथाओं के अनुसार, कृष्ण काफी शरारती थे जिन्हें लोगों से मज़ाक करना पसंद था। एक दिन उन्होंने देखा कि उनकी प्यारी राधा उनके साथ होली खेलने में शर्मा रही हैं और झिझक रही हैं। इसलिए, उन्होंने एक बांस के टुकड़े के एक कोने में छेद करके उससे राधा पर पानी फेंकने लगे, जिसे उन्होंने पिचकारी कहा। राधा कृष्ण के चंचल हावभाव से हैरान तो हुई , मगर शीघ्र ही वे दोनों अपनी पिचकारी से एक दूसरे पर रंग डालने लगे। शीघ्र पिचकारी की लोकप्रियता चारों तरफ फैल गयी।

पिचकारियां मुगलों सहित कई शाही परिवारों के उत्सवों का अभिन्न अंग रही। शाही परिवारों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली पिचकारी अक्सर चांदी या सोने से तैयार की जाती थी और सुन्दर डिजाइन और कीमती पत्थरों से सजी होती थी।

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